Horror Poem

वापसी उस हवेली की —लक्ष्मी जायसवाल

सुनसान रातें थीं, चाँद था काफ़ी दूर,
और हवाओं में कोई पुरानी सिसकी सी घुली थी।
मैं लौटी थी उस हवेली में,
जहाँ बचपन की हँसी
अब भी दीवारों में गूंजती है,
पर अब वो हँसी…
हँसी नहीं, कोई और ही चीज़ थी।


दरवाज़ा खुला नहीं,
पर भीतर जाने का रास्ता मिल गया।
जैसे किसी ने कहा हो,
“आओ… इंतज़ार कर रहे हैं हम!”

आँगन की मिट्टी में कटी हुई चूड़ियाँ थीं,
जो खून से सनी थीं…
या शायद ये बस मेरा वहम था?
नहीं… वो खून ही था,
क्योंकि जब मैंने हाथ लगाया,
वो गरम था,
जैसे अभी किसी की नस कटी हो।

कुर्सी हिली, बिना छुए,
घंटी बजी, बिना हवा के,
और ऊपर छत से एक बच्चा टपका —
न हड्डियाँ, न मांस —
सिर्फ़ आँखें… और डर!


हर कमरे में कोई था,
जो नहीं दिखता था…
पर साँस लेता था…
मेरे कानों के पास।
“तुम क्यों आई हो?”
किसी ने फुसफुसाया…


मैंने कहा – “यह मेरा घर था।”
तो दीवारों ने हँसकर जवाब दिया –
“था? अब नहीं… अब हम हैं यहाँ!”


मैं भागी, सीढ़ियाँ टूटीं,
कंधे पर किसी का पंजा पड़ा —
ठंडा, गीला,
जैसे किसी कब्र से निकला हो।
मैं पलटी, कोई नहीं था।
पर गले पर नाखूनों के निशान थे।


पुरानी तस्वीरें ज़िंदा हो गईं —
दादी ने आँखें खोलीं,
और बोली –
“लक्ष्मी! लौट क्यों आई? हम तो मर चुके!”
मैं चौंकी –
दादी तो बचपन में ही जल गई थीं न उस आग में…



चूल्हे से राख नहीं,
काली परछाइयाँ उठ रहीं थीं।
उनकी आँखें नहीं थीं,
पर वो मुझे देख रही थीं।
घसीटते हुए मेरे बालों को,
वो मुझे रसोई में ले गईं —
जहाँ कभी माँ ने खाना बनाया था।



अब वहाँ उबले सिर थे,
और किसी ने कहा –
“इस बार तेरा नंबर है…”


घड़ी उल्टी चल रही थी।
12 बजे नहीं, 13 बजकर 13 मिनट हुए थे।
वो घड़ी नहीं,
मौत की उल्टी गिनती थी।
हर सेकंड मेरे इर्द-गिर्द
क़ब्रों की मिट्टी गहराती जा रही थी।



मैंने दरवाज़ा खोला —
बाहर दिन नहीं था,
सिर्फ़ धुँध,
और उस धुँध में मेरे बचपन की मैं खड़ी थी —
जिसकी आँखें खून से लाल थीं।
वो बोली –
“तू बचके क्यों निकल गई थी? अब बचने नहीं देंगे!”



मैं भागी, हँफती हुई,
पर हवेली का नक्शा बदल चुका था।
कमरे मुड़ते थे,
दीवारें चलती थीं,
और फर्श… हँसता था!
हाँ, सच में —
उसने कहा –
“तेरी रगों का स्वाद अब याद आ गया है!”


सीलन की बदबू अब नशे में बदल चुकी थी,
मुझे चक्कर आया,
और मैंने देखा —
मेरे आसपास वे सब थे —
जो इस हवेली में मरे थे…
या मार दिए गए थे।


एक बच्चा मेरी गोद में आया —
उसके आधे चेहरे पर चमड़ी नहीं थी,
वह बोला –
“माँ, क्या तुम मुझे फिर से जलाओगी?”
मैं चीखी,
पर आवाज़ बाहर नहीं निकली।
जैसे किसी ने मेरी ज़बान सिल दी हो।


शायद मैंने कभी किसी को मारा था?
कहीं मेरा भी कोई अपराध था?
कहीं…
यह सब मेरा ही किया हुआ था?


दीवारें बोल पड़ीं –
“अब याद आया? तू ही तो जलाकर भाग गई थी,
हमें राख में छोड़कर…”
“अब तेरी बारी है जलने की!”


किरकिर करती हवाओं ने
मेरे कपड़े नोच डाले,
और उस हवेली ने
मुझे निगल लिया…


अब मैं भी वहाँ रहती हूँ।
अब जो भी आए
उसे वही सवाल पूछती हूँ
“क्यों आए हो?”
और फिर हँसती हूँ…
जैसे दीवारें हँसा करती थीं

अब मैं दीवार में हूँ…
और इंतज़ार में हूँ
तुम्हारे लौटने का…

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