शाम के धुंधलके में वह पुराना तालाब अजीब-सा चमक रहा था। गाँव के लोग कहते थे कि वहाँ कुछ है, जो सिर्फ पानी में दिखता है… पर किसी को नज़र नहीं आता।
“उस तालाब में मत जाना,” नानी हमेशा चेतावनी देती थीं। “वहाँ छाया है, जो किसी की नहीं।”
पर नीलू को कहानियाँ बहुत भाती थीं। वह बार-बार उस तालाब के किनारे जाकर बैठती, अपने चित्रों की किताब लेकर। एक दिन, शाम के वक्त, जब आसमान नारंगी हो चला था, नीलू ने पानी में कुछ अजीब देखा।
तालाब की सतह पर उसका प्रतिबिंब था… लेकिन वह मुस्कुरा नहीं रहा था। बल्कि, उसे टकटकी लगाए देख रहा था। नीलू घबरा गई। उसने पीछे मुड़कर देखा — वहाँ कोई नहीं था, पर पानी में उसकी परछाईं जस की तस थी।
अगले दिन वह फिर आई। इस बार उसकी आँखें उस छाया की तरफ ठहरी रहीं। पानी में उसका अक्स अब साफ़ बोल रहा था।
“तू देख रही है मुझे। बाकी कोई नहीं देख पाता,” वह बुदबुदाया।
“तू कौन है?” नीलू ने हिम्मत करके पूछा।
“मैं वही हूँ, जो कभी इस गाँव का हिस्सा था। इसी तालाब में डूबा… पर कभी गया नहीं। हर किसी के अक्स में छिपकर देखता हूँ — पर तेरा अक्स मेरा रहस्य खोल गया।”
नीलू डर और कौतूहल के बीच फंसी रही। वह रोज़ जाने लगी उस तालाब के पास, और वह छाया रोज़ बातें करती रही — उसके अकेलेपन की, उसके डर की, उसकी अधूरी ज़िंदगी की।
एक शाम, नीलू घर नहीं लौटी।
गाँव वाले खोजते रहे, लेकिन न तालाब के पास कोई सुराग मिला, न पानी में कोई हलचल। बस एक बात सबने नोट की — उस दिन से पानी में कोई परछाईं नहीं दिखती थी।
एक साल बाद, एक नया परिवार गाँव में रहने आया। उनकी बेटी, छोटी रिया, तालाब की तरफ गई। उसने पानी में झाँका — और मुस्कुराई।
“माँ, देखो ना, पानी में कोई लड़की खेल रही है,” उसने कहा।
माँ ने झांककर देखा — पानी शांत था, कोई परछाईं नहीं।
पर रिया हँसती रही, जैसे कोई उसके साथ खेल रहा हो।
शायद… अब वह छाया अकेली नहीं रही।