—लक्ष्मी जायसवाल
रात के ठीक बारह बजे, जब पूरा गाँव गहरी नींद में सोया हुआ था, लक्ष्मी अपने गाँव करेली से पास के गाँव धनवारी की ओर निकल पड़ी। कारण गंभीर था—उसकी बीमार नानी को दवा देना था, और वहां तक पहुँचने का एकमात्र रास्ता था पुराना जंगली रास्ता, जो बरसों से वीरान पड़ा था और जिसके बारे में गाँव वालों का मानना था कि वहां “छाया” रहती है।
“मत जा बेटी, वो रास्ता ठीक नहीं है,” माँ ने चेताया।
“माँ, नानी की जान ख़तरे में है। मैं डरने वालों में नहीं,” लक्ष्मी ने अपना टॉर्च उठाया और निकल गई।
जंगल में कदम रखते ही हवा की सरसराहट ने उसका स्वागत किया। पेड़ों की फुनगियाँ चाँदनी में थरथरा रही थीं, और जमीं पर गिरी सूखी पत्तियाँ हर कदम पर अजीब आवाज़ें कर रही थीं। दूर-दूर तक कोई इंसान नहीं था—बस जंगल, अंधेरा और डर।
करीब आधे रास्ते पर पहुँचते ही उसे लगा जैसे कोई उसके पीछे चल रहा है। उसने पलटकर देखा—कुछ नहीं। फिर कदम बढ़ाए। लेकिन अब उसके हर कदम के साथ एक और कदमों की गूँज सुनाई देने लगी।
“कौन है?” उसने ऊँची आवाज़ में पूछा।
कोई जवाब नहीं।
वह तेज़ी से चलने लगी। पेड़ों की शाखाएँ जैसे उसके रास्ते को रोकने लगीं। उसके टॉर्च की रोशनी कमजोर पड़ने लगी। अब वह दौड़ रही थी।
अचानक सामने एक बूढ़ा आदमी खड़ा दिखा—सफेद बाल, फटी हुई धोती, सूनी आँखें।
“बेटी… इस रास्ते पर क्यों आई?” उसने पूछा।
“मैं अपनी नानी के पास जा रही हूँ।”
“इस रास्ते पर एक बार जो आया, वो लौटकर नहीं गया,” बूढ़ा बुदबुदाया।
“आप कौन हैं?” लक्ष्मी ने डरते हुए पूछा।
बूढ़ा मुस्कराया और बोला, “मैं वो हूँ… जो लौटकर नहीं गया।”
लक्ष्मी की साँसे थम गईं। उसके सामने खड़ा आदमी हवा में धुंआ बनकर गायब हो गया।
अब उसे अपनी माँ की बात याद आई—“इस रास्ते पर छाया रहती है…”
अचानक किसी ने उसका हाथ पकड़ लिया—ठंडा, बर्फ जैसा स्पर्श।
“मत जाओ… वापस चलो…” एक औरत की आवाज़ आई।
लक्ष्मी ने झटके से हाथ छुड़ाया और दौड़ने लगी। दौड़ते-दौड़ते वह एक जगह गिर पड़ी—जहाँ ज़मीन नर्म थी, मानो किसी ने वहाँ हाल ही में खुदाई की हो।
वह खड़ी होने ही वाली थी कि उसे वहाँ पड़ा एक कंकाल दिखाई दिया—गले में उसी तरह का माला, जैसा उसके गाँव के लापता हुए लोगों के पास होता था।
अब वह चीख नहीं पा रही थी, गला सूख चुका था। उसकी आँखों में डर, साँसों में चीखें, और दिल में पछतावा था—इस रास्ते पर आने का।
उसने खुद को खींचते हुए रास्ते की ओर बढ़ाया, लेकिन रास्ता अब बदल चुका था। जहाँ पहले पगडंडी थी, वहाँ अब घना जंगल था। लगता था जैसे रास्ता खुद उसे निगल गया हो।
पेड़ों के बीच से आवाज़ें आने लगीं—
“एक और आई है…”
“इसे भी यहीं रहना होगा…”
लक्ष्मी अब पागलों की तरह इधर-उधर भाग रही थी। पर कोई रास्ता नहीं मिला। तभी एक पुराना टूटा हुआ मंदिर दिखा। उसने वहीं शरण लेने की सोची।
मंदिर में घुसते ही सब शांत हो गया।
एक पल के लिए उसे लगा कि वह सुरक्षित है।
लेकिन तभी मंदिर की मूर्ति की आँखों से खून टपकने लगा… और पीछे से वही बूढ़ा आदमी फिर दिखाई दिया।
“अब तू यहीं की हो गई है… जंगल की छाया में समा गई है…”
अगली सुबह गाँव वालों को लक्ष्मी की चप्पल जंगल के मुहाने पर मिली।
उसके बाद कोई भी उस रास्ते से नहीं गया।
लोग कहते हैं, जो भी उस जंगली रास्ते पर रात के समय जाता है, वहाँ “लक्ष्मी की छाया” अब दिखती है—कभी मदद माँगती हुई, कभी डराती हुई।
और अगर किसी ने उसकी मदद करने की कोशिश की, तो वह भी लौटकर नहीं आता।