—लक्ष्मी जायसवाल
गाँव के बाहर, एक टूटी-फूटी सड़क के अंत में खड़ा था शर्मा विला—एक पुराना, खंडहर बन चुका घर जो पिछले बीस सालों से बंद था। लोग कहते थे, वहाँ कोई नहीं रहता, पर रात में कभी-कभी खिड़की से एक बच्ची झाँकती है। उसकी आँखें गहरी, डरावनी और ख़ामोश होती थीं।
गाँववालों ने उस घर से दूरी बना ली थी। हर बच्चे को सिखाया गया था कि उस विला की ओर न जाए। पर अन्वी को चेतावनियाँ रोक नहीं सकीं। वह शहर से गाँव आई थी। उसकी माँ अक्सर कहा करती थी कि उनका बचपन उस घर में बीता था। एक दिन अचानक माँ की मौत हो गई, और उनके अंतिम शब्द थे—”उसे माफ़ कर देना… वो अब भी इंतज़ार कर रही है।”
अन्वी को चैन नहीं आया। वो उस रहस्य को जानना चाहती थी। माँ की डायरी में उसने कुछ पंक्तियाँ पढ़ीं: “तीसरी मंज़िल पर मत जाना… घड़ी के तीन बजते ही सब बदल जाता है।”
उसी दिन शाम को, वह अकेली शर्मा विला पहुँची। जंग लगा दरवाज़ा कराहते हुए खुला। अंदर घुप्प अँधेरा था। दीवारों पर जाले थे, और हर कोना सड़ चुकी लकड़ी की बदबू से भरा था। उसने मोबाइल की टॉर्च ऑन की और अंदर कदम रखा।
अचानक एक खिलखिलाती हँसी सुनाई दी। अन्वी चौंक गई। “क… कौन है?” उसकी आवाज़ काँप रही थी। ऊपर से किसी के दौड़ने की आवाज़ आई। वह सीढ़ियाँ चढ़कर दूसरी मंज़िल पर पहुँची। वहां एक दरवाज़ा खुला था, और भीतर पुरानी बच्ची की तस्वीरें थीं।
तभी घड़ी ने तीन बजाए। टन्… टन्… टन्…
एक तेज़ हवा का झोंका आया और दरवाज़ा अपने आप बंद हो गया। टॉर्च बंद हो गई। अंधेरे में कुछ सरसराया। “तुम माफ़ कर दोगी न?” एक मासूम पर डरावनी आवाज़ गूंजी।
अन्वी ने देखा—एक धुँधली परछाई उसके सामने खड़ी थी। वही बच्ची, जिसकी आँखें उसकी माँ जैसी थीं। “माँ ने मुझे जलने दिया… उसने दरवाज़ा बंद कर दिया था… मैं इंतज़ार करती रही…” बच्ची की आँखों से खून बह रहा था।
अन्वी काँप रही थी, मगर उसने साहस करके कहा, “मैं माफ़ी माँगने आई हूँ… तुम्हारे लिए दिया जलाने आई हूँ।”
तभी परछाई धीरे-धीरे हल्की होने लगी। कमरे में रौशनी सी फैल गई। हवा थम गई। और वो बच्ची बस एक फुसफुसाहट छोड़ गई—“अब मैं जा रही हूँ…”
दरवाज़ा अपने आप खुल गया। अन्वी नीचे उतरी, बाहर आई। शर्मा विला अब भी वैसा ही खड़ा था, मगर अब उसमें एक सन्नाटा नहीं, शांति थी।
उस दिन के बाद, शर्मा विला में फिर कभी कोई परछाई नहीं दिखी।