_लक्ष्मी जायसवाल
सालों पहले की बात है। सर्दियों की एक रात थी, जब राघव दिल्ली से लखनऊ जाने वाली आखिरी ट्रेन में चढ़ा। रात के 11 बज चुके थे और कोच में गिनती के ही लोग थे। उसने खिड़की के पास वाली बर्थ ले ली और रजाई में लिपटकर किताब पढ़ने लगा।
करीब आधे घंटे बाद ट्रेन किसी छोटे स्टेशन पर रुकी। स्टेशन सुनसान था। तभी एक महिला साड़ी में लिपटी हुई, सिर पर घूंघट डाले, राघव के डिब्बे में चढ़ी। उसने बगल वाली खाली सीट पर बैठते हुए धीमे से कहा, “यह सीट खाली है न?”
राघव ने सिर हिलाया और फिर किताब में खो गया। कुछ देर बाद उसने महसूस किया कि महिला उसे लगातार घूर रही है। जब उसने नजरें उठाईं, तो देखा कि महिला की आंखें बिल्कुल काली थीं—कोई पुतली नहीं, सिर्फ गहरा स्याह रंग!
राघव का दिल धक-धक करने लगा। उसने हिम्मत करके पूछा, “आप कहां जा रही हैं?”
महिला ने धीरे से जवाब दिया, “जहां तुम जाओगे, वहीं।”
इतना कहकर वह खामोश हो गई। राघव ने घबराकर एक अन्य यात्री से बात करनी चाही, लेकिन पूरा डिब्बा खाली था! उसे याद आया कि कुछ समय पहले तो चार लोग बैठे थे… सब कहां चले गए?
घड़ी देखी—रात के 12:05 हो रहे थे। अचानक लाइटें झपकने लगीं और ट्रेन की रफ्तार अजीब ढंग से कम होने लगी। तभी महिला उठी और बोली, “हर साल इस रात मैं इस ट्रेन में लौटती हूं… अपने प्रेमी को खोजने… जिसने मुझसे शादी का वादा कर आत्महत्या कर ली थी।”
राघव की सांसें थम सी गईं। उसने दरवाजे की ओर भागने की कोशिश की, पर दरवाजा बंद था। महिला अब हवा में तैर रही थी, उसके पैर जमीन पर नहीं थे!
अगली सुबह जब ट्रेन लखनऊ पहुँची, रेलवे स्टाफ ने देखा कि राघव बेहोश पड़ा है। उसके चारों ओर बर्फ जैसी ठंडक थी और उसकी आंखें खुली थीं—डर से जमी हुईं। डॉक्टर ने बताया, “इसे किसी भयंकर सदमे से गुजरना पड़ा है।”
कई साल बीत चुके हैं, लेकिन राघव अब भी रात की ट्रेनों से दूर रहता है। और कहते हैं, हर साल 15 दिसंबर की रात, उस ट्रेन में वह साया अब भी किसी को ढूंढता है…
शायद अगला नंबर आपका हो।