“हर आईना सिर्फ अक्स नहीं दिखाता… कभी-कभी वो आत्मा भी पकड़ लेता है।”
मुंबई के उपनगर में एक पुराना फ्लैट किराए पर खाली था। रोहित, जो हाल ही में नौकरी पर आया था, वहाँ रहने लगा। कमरे में एक अजीब-सा, पुराना, लकड़ी से घिरा हुआ बड़ा दर्पण लगा था — धूल से भरा, पर आकर्षक।
पहली मुलाकात
शिफ्टिंग के दूसरे दिन रोहित ने उस दर्पण को साफ़ किया। जैसे ही उसने कपड़ा हटाया, उसे अपना अक्स थोड़ा अलग सा लगा — मुस्कुराहट में एक फर्क, आंखों में एक ठहराव। उसने सोचा, शायद थकान है।
लेकिन रात को, जब वह सोने गया, तो उसे लगा जैसे दर्पण से कोई धीमी खटखट की आवाज़ आ रही हो… जैसे कोई अंदर से बाहर आना चाहता हो।
असली डर की शुरुआत
रोज़ रात को वो आवाज़ें बढ़ने लगीं। एक दिन रोहित ने देखा कि दर्पण में उसका अक्स उसे ही घूर रहा था, पर उसकी आंखें सुर्ख थीं और होठों पर एक भयावह मुस्कान।
डर के बावजूद, रोहित ने सामना करने का फैसला किया। उसने पूछा, “तू कौन है?”
तभी उसके पीछे से आवाज़ आई — “तेरा दूसरा रूप… अब मेरी बारी है तेरी जगह लेने की…”
अंतहीन भ्रम
अगली सुबह, फ्लैट खाली मिला। रोहित नहीं था। उसका मोबाइल, लैपटॉप और कपड़े रखे थे, पर खुद वो कहीं नहीं था।
पर अगर कोई उस कमरे में जाए और दर्पण को ध्यान से देखे… तो उसमें एक चेहरा दिखेगा — मुस्कराता हुआ, पलकें झपकाए बिना — मानो अब वो दर्पण का मालिक हो।