Horror Poem

छाया

—लक्ष्मी जायसवाल

आधी रात को बजती घड़ी,
हर साया लगता अनदेखी छड़ी।
बत्ती जले तो बुझ जाए,
पीछे कोई सांसें गिन जाए।

दीवारों पर परछाईं दौड़े,
दरवाज़ा खुद से खुलकर जोड़े।
आईने में चेहरा पराया,
जो झाँको, तो खुद को ना पाया।

सीढ़ियाँ चढ़े बिना कोई चढ़े,
फर्श पे पाँव के निशान पड़े।
दरख़्त भी कांपें उसकी चाल से,
हवा भी हारी उसकी हाल से।

कमरे में खुशबू कुछ सड़ी हुई,
जैसे आत्मा कोई पड़ी हुई।
पिंजरे में पंछी चिल्लाए,
खिड़की की सलाखें खुद हिल जाएं।

नाम कोई रोज़ पुकारे,
मगर हर जुबां से डर उतारे।
वो जो कभी दिखता नहीं,
वही सबसे ज़्यादा रहता यहीं।

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